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एक लेखक की भटकन

एक लेखक की भटकन

  प्रयागराज जंक्शन से जो तीन पुस्तकें खरीद कर लाया था, उसमें से श्री हरिशंकर परसाई जी की पुस्तक 'वैष्णव की भटकन' पढी। निःसंदेह पुस्तक बहुत अच्छी है तथा विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर बहुत अच्छे व्यंग्य लिखे गये हैं। पर पुस्तक का आखरी लेख, जिसका शीर्षक - 'कबीर जयंती क्यों नहीं ' पढा। पढते ही लगा कि इस लेख का वास्तविक शीर्षक - लेखक की भटकन होना चाहिये ।

   भटकना मनुष्य का स्वाभाविक स्वभाव है। विभिन्न पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि बड़े से बड़े मनीषी भी भटके हैं। वैसे भी मानव मन बुराइयों का भंडार है। वर्षों ईश्वर आराधना में लगे रहे मनीषी बहुत छोटी छोटी बातों से भी विचलित हुए हैं। इंद्र प्रेषित अप्सराओं ने कितने ही संतों को उनके लक्ष्य से विचलित किया। केवल महर्षि नर और नारायण को छोड़ कोई भी नहीं हुआ जो कि इन बातों से अप्रभावित रहा हो। वैसे भी महर्षि नर और नारायण को भगवान विष्णु का रूप ही माना जाता है जिस रूप में वह लगातार तपस्या में रत रहते हैं।

  कबीरदास जी निर्गुण परंपरा के महान भक्त कवि हुए हैं। भले ही उनकी रचनाओं में भाषा संबंधी दोष मिलते हैं, उसके बाद भी उनकी रचनाओं की गहनता को समझ पाना आसान नहीं होता। उस काल में प्रचलित कितने ही पाखंडों का उन्होंने विरोध किया था। समूचे भारत वर्ष में ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसके मन में कबीरदास जी के प्रति श्रद्धा न हो। ऐसा कोई भी नहीं होगा जिसे संत कबीर दास जी की जयंती मनाने से आपत्ति हो। और यदि कुछ को होती भी है तो उनकी बात का कोई अर्थ नहीं।

  अद्भुत बात है कि हरिशंकर परसाई जी जैसे प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार इस लेख को लिखते समय किस तरह से भटके हैं। उन्हें संत कबीर दास जी की महत्ता और भारतीय समाज पर उनके प्रभाव के विषय में अधिक स्पष्टता से बताना चाहिये था। जबकि इस पूरे लेख में ऐसा कहीं नहीं है। उसके बजाय यह पूरा लेखक बेबजह तुलसी विरोध का रूपांतरण सा है।

  तुलसीदास जी ब्राह्मण जाति में पैदा हुए थे। उनके लिखे साहित्य श्री राम चरित मानस का भारतीय समाज पर जितना प्रभाव पड़ा है, उस विषय में अधिक लिखने का क्या अर्थ। तुलसीदास जी ने हर तरीके से समाज को जोड़ा ही था। शायद इन्हीं कारणों से महान विचारक श्री राम चंद्र शुक्ल जी ने उन्हें हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि माना है। क्योंकि उनके द्वारा स्वांतःसुखाय लिखी मानस विश्व सुखाय लिखा साहित्य ही है।

  जब मनुष्य सत्य से आंख बंद कर किसी का विरोध करने लगता है, उस समय वह चाहे किसी का भी समर्थक होने का दावा करे, पर होता कदापि नहीं है। तुलसी विरोध को कबीर समर्थन का किसी भी तरह से नामकरण नहीं किया जा सकता है। जैसे भगवान शिव का विरोधी कभी भी भगवान श्री राम का भक्त नहीं हो सकता, उसी तरह तुलसी का विरोध कभी भी महान संत कबीर, रैदास जैसे संतों का समर्थन तो नहीं कहा जा सकता है।

  लेख के आरंभ में ही लेखक तुलसीदास जी को बहुत पीछे हटाकर पद्मावत के रचनाकार मलिक मुहम्मद जायसी की प्रशंसा करते हैं क्योंकि उन्होंने अपने साहित्य में मुस्लिम पात्र को खलनायक और हिंदू पात्रों को नायक एवं नायिका के रूप में प्रस्तुत किया है।

  पता नहीं कि हरिशंकर जी जैसे लेखक ने पद्मावत को क्यों हिंदू मुस्लिम संघर्ष से जोड़ा है। जबकि निर्विवाद सत्य है कि जायसी जी सूफी परंपरा के भक्त कवि थे। सूफी परंपरा में आत्मा को नायक, परमात्मा को नायिका मानते हुए प्रसिद्ध हिंदू कहानियों को ही आध्यात्मिक कहानी के रूप में लिखा है। पद्मावत के अंत में जायसी ने पूरी कहानी का आध्यात्मिक मर्म भी बताया है। दूसरी बड़ी बात है कि यदि जायसी जी ने एक अन्यायी मुस्लिम शासक को अपने साहित्य में बुरा बताया है तो यह तुलसी जी की किस तरह आलोचना का आधार हुआ। जबकि श्री रामचरित मानस का खलनायक रावण खुद ब्राह्मण कुल में जन्मा परम विद्वान व्यक्ति है। तुलसी ने किस तरह अनुचित ब्राह्मण वाद का समर्थन किया है।

  खुद की अनुचित बातों को सिद्ध करते हुए लेखक ने महाराणा प्रताप पर मानसिंह की श्रेष्ठता सिद्ध की।

  आप तुलसी को सामंतवादी कवि कहते हैं जबकि तुलसी का पूरा साहित्य ही ऊंच और नीच की खाई को भरता है जबकि श्री राम निषादराज गुह से मित्रता करने के साथ साथ वानरराज सुग्रीव से भी मित्रता करते हैं। माता शवरी के हाथों से भोजन करते हैं।

   परसुराम फरसा रखते थे जो कि धनुष के सामने बेकार था। ऐसी बातें लिखने से पूर्व परसाई जी जरा प्राचीन ग्रंथों को पढ लेते। भगवान परसुराम उस काल के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे।

  इसी तरह सुग्रीव और बालि के विषय में तथ्यहीन विश्लेषण हैं। जिन्हें लिखने का कोई अर्थ नहीं है।

  शंभूक वध की गाथा तुलसी के किसी भी साहित्य में नहीं है तथा वह जिस साहित्य में है, उनके रचनाकार को स्वपच जाति के लोग अपने पूर्वज के रूप में पूजते हैं। हालांकि शंभूक वध की लीला भी शूद्र जाति के पूजा पाठ का विरोध नहीं था जबकि सत्य था कि एक आडंबर, तामस पूजा का साधक जिसके मन में विश्व को मिटाने के कुविचार थे, जो विभिन्न अनैतिक आचरणों में रत था तथा प्रभु श्री राम को अपने शूद्रत्व के आधार पर यह धमकी भी देता है कि उसे रोकने पर राम की युगों तक अपकीर्ति रहेगी, उसके बाद भी श्री राम द्वारा समाज कल्याण की कामना से मारा जाता है। (उस गंभीर विषय में अलग से लिखना आवश्यक होगा।) समाज के लिये अपने आचरण पर अपकीर्ति लेना प्रभु श्री राम के लिये ही संभव है। पहले ही वह सीता अग्नि परीक्षा और सीता परित्याग की अपकीर्ति अपने ऊपर ले चुके थे। उपरोक्त विषयों में लेखक ने अपने विभिन्न साहित्यों में विस्तार के साथ लिखा है।

   तुलसी ने उर्मिला का चित्रण नहीं किया तो वह नारी विरोधी किस प्रकार हुए। एक ही कथा के अलग अलग चित्रण सभी के मनों में अलग अलग तरीके से होते हैं। फिर उर्मिला का जो चित्रण मैथिली शरण गुप्त जी ने किया है, वह भी त्याग का चित्रण है न कि आलोचना पूर्ण चित्रण।

   तुलसी के साहित्य में मात्र एक चोपाई ऐसी है जिसे कुछ हद तक उनकी पुरुष वादी और ब्राह्मण वादी मानसिकता से जोड़ा जा सकता है। उस विषय में भी आज कह सकता हूं कि ताड़ना शव्द का एक अर्थ समझाना है तथा गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री राम चरित मानस में इस चोपाई का यही अर्थ लिखा है।

   कबीर दास जी एक महान कवि थे, बड़े विचारक थे, उनकी जयंती मनानी चाहिये, ऐसा पूरे लेख में कहीं उल्लेख नहीं है। अपितु पूरा लेख तुलसी जयंती के विरोध पर केंद्रित है। वैसे एक सार्वभौमिक प्रश्न है कि तुलसी जयंती कब और कहां मनायी जाती है। जो सभी जातियों के संतों का सम्मान करे, वही तो ब्राह्मण कहलाने का यथार्थ अधिकारी है। संत कबीर दास, रैदास, के साथ साथ संत तुलसीदास ने समाज में व्याप्त विषमताओं का खंडन ही किया था, समाज को एक सूत्र में बांधा था और आज बड़े दुख की बात है कि उन्हीं संतों का उदाहरण देकर समाज को बांटने का भी प्रयास किया जा रहा है। और उससे भी अद्भुत बात है कि ऐसा समाज के प्रबुद्ध वर्ग कर रहे हैं।

दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत' 

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4 Comments

Abhinav ji

27-Feb-2023 07:56 AM

Very nice

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Alka jain

26-Feb-2023 02:21 PM

Nice

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